तक़लीद के अहकाम 20-1

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तौज़ीहुल मसाएल


मसअला 1. कोई भी मुसलमान उसूले दीन (तौहीद, अदल, नबूवत, इमामत और क़यामत) में तक़लीद (दूसरे की बात का अनुसरण करना) नहीं कर सकता। बल्कि उसूले दीन को अपने ज्ञान अनुसार तर्क से समझना चाहिए। लेकिन फ़ुरूए दीन (वह कार्य जो कि व्यवहार के संबंधित हैं) में अगर मुजतहिद (यानि जो व्यक्ति ईश्वरीय आदेशों को तर्क से स्वंय हासिल कर सकता हो) तो अपने विश्वास के मुताबिक काम करे। और अगर मुजतहिद नही है तो उसे चाहिए कि दूसरे मुजतहिद की तक़लीद करे यानि उसके बताए हुए रास्ते पर चले। बिल्कुल उसी प्रकार जैसे लोग जिस चीज़ की जानकारी नही रखते हैं तो उस चीज़ के बारे में उसकी तरफ़ जाते हैं जो उसका जानकारी रखने वाला हो और उसका अनुसरण करते हैं। इसके अलावा एहतियात (यानि किसी कार्य को इस प्रकार करना कि उसको यक़ीन हो जाए कि उसने ईश्वर के आदेश का पालन कर लिया है) पर भी अपाख़ाना कर सकता है, जैसे अगर किसी वस्तु को कुछ मुजतहिद (मुफ़्ती) हराम और कुछ दूसरे मुबाह (जिसका करना और न करना बराबर हो) मानते हों तो उसको छोड़ दे और अगर कुछ मुजतहिद किसी काम को वाजिब और कुछ दूसरे मुसतहिब (धर्म का वह काम जिसका करना धार्मिक दृष्टि से आवश्यक नही है लेकिन उसके करने पर सवाब है) कहते हों तो उसको अवश्य अंजाम दे। लेकिन चूँकि एहतियात पर अपाख़ाना करना कठिन है, और धार्मिक मसअलों के बारे में बहुत अधिक जानकारी चाहता है इसलिए अधिकतर लोगों के लिए यही अच्छा है कि वह मुजतहिदों की तरफ़ जाएं और उनकी ही तक़लीद करें।
मसअला 2. अहकाम में तक़लीद का मतलब यह हैं कि अपने व्यवहार को मुजतहिद के फ़तवे के अनुसार करे, यानि अपने अपाख़ाना को मुजतहिद के फ़तवे का अधीन कर दे।
मसअला 3. ऐसे मुजतहिद की तक़लीद करनी चाहिए जिस में निम्न लिखित शर्ते पाई जाती होः
मर्द हो, बालिग़ हो (यानि पन्र्जह साल का हो गया हो) आक़िल हो, शिया हो (बारह इमामों का मानने वाला हो), हलाल ज़ादा हो, आदिल हो (इन में से कुछ गुणों में एहतियात आवश्यक है) आदिल का मतलब वह व्यक्ति है जिस के दिल में ईश्वर का ऐसा डर हो जो उसे बड़े गुनाहों करने और छोटे गुनाहो को बार बार करने से रोके।
मसअला 4. जिन मसअलों में मुजतहिदों की बीच अलग अलग राय हो उनमें सब से अधिक ज्ञान रखने वाले की तक़लीद करनी चाहिए।
मसअला 5. किसी मुजतहित और और सब से बड़े ज्ञानी की तीन प्रकार से पहचान की जा सकती है।
1. इन्सान के पास ख़ुद इतना ज्ञान हो कि वह मुजतहिद की पहचान कर सकता हो।
2. ज्ञानियों में से कोई दो आदिल (सच्चे) किसी के ज्ञानी होने का समाचार दे लेकिन इस शर्त के साथ कि दो दूसरे ज्ञानी उनके विरुद्ध गवाही नही दें।
3. वह ज्ञानियों और इल्मी बैठकों में इतना प्रसिद्ध हो कि उसके सब से बड़े ज्ञानी होने का विश्वास हो जाए।
मसअला 6. अगर विश्वास पूर्ण और यक़ीनी रास्ते से सब से बड़े ज्ञानी की पहचान संभव नही हो तो एहतियात यह है कि ऐसे व्यक्ति की तक़लीद करे जिसके सब से बड़े ज्ञानी होने की संभावना हो, और अगर कुछ मुजतहिदों के बीच शक हो और किसी एक को दूसरे पर प्रथमिक्ता नही दे सके तो उनमें से जिसकी चाहे तक़लीद कर सकता है।
मसअला 7. मुजतहिद का फ़तवा मालूम करने के कुछ रास्ते हैः
1. स्वंय मुजतहिद से सुने या उसके हस्ताक्षर (लिखे होने की सूरत में) देखे।
2. ऐसी तौज़ीहुल मसाएल (किसी मुजतहिद की वह पुस्तक जिस में उसके फ़तवे लिखे जाते हैं) में देखे जो विश्वास योग्य हो।
3. किसी ऐसे व्यक्ति से सुने जो विश्वास योग्य हो।
4. लोगों के बीच इस प्रकार प्रसिद्ध हो कि उस पर विश्वास हो जाए।
मसअला 8. अगर कभी मुजतहिद का फ़तवा बिलकुल स्वष्ट नही हो बल्कि वह यह कहे एहतियात यह है कि फ़लां तरीक़े के अनुसार कार्य किया जाए तो इसको एहतियाते वाजिब कहते हैं। ऐसे समय पर तक़लीद करने वाला स्वतंत्र है चाहे उस एहतियात के अनुसार कार्य करे या किसी दूसरे मुजतहिद की तक़लीद कर ले और अगर साफ़ साफ़ फ़तवा दिया गया हो जैसे कहा गया हो कि नमाज़ के लिए अक़ामत मुसतहिब है और उसके बाद कहे कि एहतियात यह है कि छोड़े नही, तो इस एहतियात को एहतियाते मुसतहिब कहते है। एहतियाते मुसतहिब में तक़लीद करने वाले को आज़ादी है चाहे उसके अनुसार कार्य करे या नही करे और अगर मुजतहिद किसी स्थान पर कहे कि महल्ले तअम्मुल (शंका) है या महल्ले इश्काल (इसमें शंका) है तो तक़लीद करने वाले को चाहिए कि वह एहतियात के अनुसार कार्य करे या किसी दूसरे मुजतहिद के फ़तवे का पालन करे लेकिन अगर मुजतहिद कहे ज़ाहिरन ऐसा है (यानि प्रकट ऐसा होता है) या यह कहे कि फ़तवा यह है तो इस प्रकार के कथन फ़तवा माने जाएगें और तक़लीद करने वाले पर उसका अनुसरण करना आवश्यक होगा।
एहतियाते वाजिबः मुजतहिद बिना फ़तवा दिए एहतियात का शब्द प्रयोग करे जैसे कहे कि एहतियात यह है कि ऐसे कार्य किया जाए।
एहतियाते मुसतहिबः मुजतहिद फ़तवा देने के बाद एहतियात का शब्द प्रयोग करे।
जिस मुजतहिद की इन्सान तक़लीद कर रहा है अगर उस मुजतहिद की मृत्यु हो जाए तब भी वह उसी की तक़लीद कर सकता है बल्कि अगर मरने वाला सब से अधिक ज्ञानी रहा हो तो उसकी तक़लीद पर बाक़ी रहना वाजिब है। लेकिन इस शर्त के साथ कि उस मुजतहिद के जीवन में उसके फ़तवो का अनुसरण कर चुका हो।
मसअला 11. एहतियाते वाजिब के आधार पर मरे हुए मुजतहिद की तक़लीद शुरू करना (यानि अगर वह पहले से उसकी तक़लीद नही करता रहा है और अब उसकी मृत्यु के बाद उसकी तक़लीद करना चाहता है) जाएज़ नही है, चाहे वह सब से अधिक ज्ञानी ही क्यों नही रहा हो।
मसअला 12. हर व्यक्ति को चाहिए कि जिन मसअलों की अधिकतर आवश्यकता पड़ती रहती है उनको याद करे या उसके एहतियात का तरीक़ा जानता हो।
मसअला 13. अगर कोई ऐसा समअला सामने आ जाए जिसका हुक्म नही जानता है तो एहतियात के अनुसार कार्य कर सकता है, और अगर उसका समय निकल जाने का ख़तरा नही है तो उसको चाहिए कि धैर्य रखे यहां तक कि किसी मुजतहिद तक पहुंच जाए और अगर मुजतहिद तक पहुँचना संभव ना हो तो जिस तरफ़ सही होने की अधिक संभावना हो उस पर अपाख़ाना करे फिर बाद में (पता) करे अगर उसका कार्य मुजतहिद के फ़तवे के अनुसार था तो सही है अन्यथा उसको दोबारा अंजाम दे।
मसअला 14. अगर कोई एक लंबे समय तक बिना तक़लीद के अपाख़ाना अंजाम दे और उसके बाद तक़लीद करे तो अगर उसके पहले वाले कार्य उस मुजतहिद के फ़तवे के अनुसार रहे हों जिस की वह अब तक़लीद कर रहा है तो वह सही हैं अन्यथा उसको चाहिए कि उनको दोबारा अंजाम दे, यही आदेश उस समय के लिए भी है जब खोजबीन किये बिना किसी मुजतहिद की तक़लीद कर ले।
मसअला 15. जब भी कोई किसी मुजतहिद का फ़तवा ग़लत बताए तो उस पर आवश्यक है कि सही फ़तवा मालूम होने के बाद सही फ़तवा बताए। और अगर मिम्बर से अपने भाषण के बीच में बयान किया हो तो उसको चाहिए बहुत से अलग अलग स्थानो पर उस मसअले को बयान करे ताकि जिन लोगों ने ग़लत समझा हो उनकी ग़लती दूर हो जाए, परन्तु अगर उस मुजतहिद का फ़तवा बदल जाए तो उसके बारे में बताना वाजिब नही है।
मसअला 16. एतियाते वाजिब के अनुसार एक मुजतहिद की तक़लीद को छोड़ कर किसी दूसरे की तक़लीद करना जाएज़ नही है। हां! अगर दूसरा मुजतहिद अधिक ज्ञानी हो तो तक़लीद बदलना जाएज़ है, और अगर बिना छानबीन किए तक़लीद बदल दी है तो उसको दोबारा पहले वाले मुजतहिद की तरफ़ पलट जाना चाहिए।
मसअला 17. अगर मुजतहिद का फ़तवा बदल जाए तो नए फ़तवे के अनुसार कार्य करना चाहिए और पहले वाले फ़तवे के अनुसार जो कार्य पहले कर चुका है (जैसे कोई इबादत या कोई व्यपार) वह सही हैं उन्हें दोबारा करने की आवश्यकता नही है। इसी प्रकार अगर एक मुजतहिद से दूसरे मुजतहिद की तरफ़ जाए तो पहले मुजतहिद के फ़तवे के अनुसार किए गए कार्य को दोबार करने की आवश्यकता नही है।
मसअला 18. अगर इन्सान एक लंबे समय तक तक़लीद करे और पता न चल सके कि उसकी तक़लीद सही है या नही तो पहले किये गए कार्य सही है। लेकिन वर्तमान में होने वाले कार्य और भविष्य के कार्यों के लिए सही तक़लीद आवश्यक है।
मसअला 19. अगर दो मुजतहिद बराबर हों तो कुछ मसअलों में एक की और कुछ में दूसरे मुजतहिद की तक़लीद की जा सकती है।
मसअला 20. जो व्यक्ति मुजतहिद नही है तो उसका धार्मिक मसअलों में फ़तवा देना या विचारों को व्यक्ति करना हराम है और अगर बिना जानकारी के व्यक्त करता है तो जितने लोगों ने उसके कहने के अनुसार कार्य किया है उन सब के अपाख़ाना का दायित्व उस पर है।

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