77दो अहम किताबें
वह अहम मनाबे जो शियों की बहुत अहम मीरास समझे जाते हैं उनमें से एक नहजुल बलाग़ा है। यह किताब हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ुतबों, ख़तों और कलमाते क़िसार पर आधारित है। इस किताब को अब से एक हज़ार साल पहले मरहूम सैयद रज़ी रिजवानुल्लाह तआला अलैह ने मुरत्तब किया था। इस किताब के मतालिब, अलफ़ाज़ की ज़ेबाई और कलाम की शीरनी ऐसी है कि जो भी इस किताब को पढ़ता है इस का गिरवीदह हो जाता है,चाहे वह किसी भी मज़हब से ताल्लुक़ रखता हो। काश सिर्फ़ मुसलमान ही नही बल्कि अगर ग़ैरे मुसलमान भी इस किताब को पढ़ें तो इस्लाम के तौहीद व मआद के नज़रियह से आगाह हो कर इस्लाम के सियासी अख़लाक़ी व समाजी मसाइल से आशना हो जायें।
इस सिलसिला-ए-मीरास की दूसरी अहम किताब सहीफ़ा-ए-सज्जादियह है । यह किताब दुआओं का मज़मूआ है। इन दुआओं में इस्लाम के बुलन्द मर्तबा बेहतरीन मआरिफ़, फ़सीह व जेबा इबारतों में बयान किये गये हैं। इस किताब में मौजूद दुआऐं नहजुल बलाग़ा के ख़ुत्बों की तरह हैं। जिनका हर जुम्ला इंसान को एक नया दर्स देता है और अल्लाह की इबादत व अल्लाह से दुआ का तरीक़ा सिखाते हुए इंसान की रूह को जिला बख़्शता है।
जैसा कि इस किताब के नाम से ज़ाहिर है यह किताब शिया मकतब के चौथे इमाम हज़रत ज़ैनुल आबीदीन अलैहिस्सलाम (जो कि सैयदे सज्जाद के लक़ब से मशहूर हैं) की दुआओं का मजमूआ है। हम जिस वक़्त भी यह चाहते हैं कि अल्लाह की बारगाह में दुआ करें, उसकी इबादत में इज़ाफ़ा करें, उस ज़ाते पाक से अपने राब्ते को और मज़बूत बनाऐं तो हम इन्हीं दुआओं को पढ़ते हैं। इन दुआओं को पढ़ने से हमारी रूह इसी तरह शाद होती है जिस तरह बारिश के पानी से सेराब हो कर सबज़ा लहलहाने लगता है।
शिया मकतब से मुताल्लिक़ दस हज़ार से ज़ाइद हदीसों में से अक्सर हदीसें पाँचवें और छटे इमाम यानी हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम व हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ आलैहिस्सलाम से नक़्ल हुई हैं। इन आहादीस का एक अहम हिस्सा हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से भी नक़्ल हुआ है। इस की वजह यह है कि इन तीनो बुज़ुर्गों ने ऐसे ज़माने में ज़िन्दगी बसर की जब अहले बैत अलैहिम अस्सलाम पर दुशमनों और बनी उमैयह व बनी अब्बास के हाकिमों का दबाव कम था। लिहाज़ा इस फ़ुर्सत का फ़ायदा उठाते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की वह अहादीस जो मआरिफ़ के तमाम अबवाब व इस्लामी फ़िक़ह के अहकाम से मुताल्लिक़ थी, और इन के आबा व अजदाद के ज़रिये इन तक पहुँची थी अवाम के सामने बयान करने में कामयाब हो गये। शिया मज़हब को जाफ़री मज़हब जो कहा जाता है इस की वजह यही है कि शिया मज़हब की अक्सर रिवायतें इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुई हैं। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का ज़माना वह था जब बनी उमैयह रू बज़वाल थे और बनी अब्बास अभी सही से अपने पंजे नही जमा पाये थे। हमारी किताबों में मिलता है कि इसी दौरान इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मआरिफ़े फ़िक़्ह व अहादीस में चार हज़ार शागिर्दों की तरबीयत की।
हनफ़ी मसलक के इमाम अबू हनीफ़ा हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की तारीफ़ करते हुए इस तरह कहते हैं कि “मा रऐतु अफ़क़हा मिन दाफ़र बिन मुहम्मद ”[32] यानी मैने जाफ़र इब्ने मुहम्मद से बड़ा कोई फ़क़ीह नही देखा।
मालिकी मज़हब के इमाम मालिक िब्ने अनस कहते हैं कि “एक मुद्दत तक मेरा जाफ़र बिन मुहम्मद के पास आना जाना रहा मैं जब भी उनके पास जाता था, उनको तीन हालतों में से एक में पाता था या तो वह नमाज़ में मशग़ूल होते थे या रोज़े से होते थे या तिलावते क़ुरआने करीम कर रहे होते थे। मेरा अक़ीदह है कि इल्म व इबादत के लिहाज़ से जाफ़र इब्ने मुहम्मद से बाफ़ज़ीलत मर्द न किसी ने देखा है और न ही ऐसे आदमी के बारे में किसी ने सुना है। ”[33]चूँकि यह किताब बहुत मुख़्तसर है इस लिए आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिस्सलाम के बारे में उलमा-ए-इस्लाम के तमाम नज़रियात को नक़्ल नही कर रहे हैं।